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काला धन और हाय तौबा

अकबर इलाहाबादी की लिखी वो लाईन याद आती है “ हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है...डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है...यह लाइन देश भर में कुछ सालों से उठे मुद्दे पर बहुत गजब की बैठती है। यह मुद्दा गरम है इसलिए सोचा कुछ मैं भी इसपर हथौड़ा मारू और टिप्पणी करुं। मुद्दा है विदेशों मे जमा धन, जिसे देश की कंपनियों और राजनेताओं ने जमा कर रखा। इसे काला धन नाम दिया गया है। इस पर इतना हाय तौबा क्यों मचा हुआ है यह पता नहीं। यह धन काला कैसे है यह भी समझ नही आता। राज नेताओं ने जो जमा किया है वह पूरी तरह गलत है। उन्होने कमीशन खोरी की है इसमें दो राय नहीं। वैसे इनका तनख्वाह कुछ कम नहीं होता फिर भी पांच साल में करोड़ों रुपए कमाना इतना आसान नहीं होता। उदाहरण के तौर पर जे. जयललिता को ही ले लिया जाए। खैर इन कंपनियों ने जो धन कमाया है क्या वह काला था? या भारत की उस मुद्रा को वे काला करके यहां से विदेश ले गए? हो सकता है विदेश में ले जाकर इसे काला कर दिए हो। अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर यह काला कैसे हो गया। कहीं ऐसा तो नहीं हम बचपन से पढ़ते आ रहे है कि काला बाजारी होता है व्यवसायी अक्सर ऐसा कर