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काली स्याही का विमुक्त पंछी है कलम

कलम आज स्वतंत्रता उद्योगपतियों और कार्पोरेट की गुलामी का दंश झेल रहा है। सारे अखबार आज उद्योग घराने के इशारे पर नाच रहे हैं। टीवी चैनल और अखबार ज्यादातर उद्योग बन चुके हैं। टार्गेट मिलता है पत्रकारों को कितनी खबरें करनी है कैसी खबरें करनी है। चाहे वो सरोकार हो न हो पत्रकारिता से जनता से समाज से। फिर भी पत्रकार को करना ही होता है ऐसी खबरें जिससे स्वार्थ सधे अखबार घरानों। यह भी कहा जा सकता है कि पत्राकर आज कोई बचा नहीं और पत्रकारिता अब कोई कर नहीं रहा। जो कर रहे हैं वे या तो किसी अखबार के लिए नहीं बल्कि अपने सोशल मीडिया के लिए कर रहे हैं या फिर अपने वेब के लिए। पत्रकारिता कर्मचारिता में बदल चुकी है यह उस दौर की बात नहीं रही जब कलम को लोग तलवार और तोप से भी ज्यादा कारगर मानते थे। कलम काली स्याही का विमुक्त पंछी था, है, और रहेगा, लेकिन तब जब इसकी आजादी को कर्मचारिता नहीं पत्रकारिता बनाकर रखी जाए। राधारी सिंह दिनकर की कलम या तलवार इसी कड़ी का एक रूप है... स्वतंत्र लेखक को आज धन की कमी है। जिसके पास धन है वे पत्रकार और लेखक नहीं बल्कि कर्मचारी हैं एक उद्योग के एक कार्पोरेट के।