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लड़ाई तो बंदुक से ही लड़ेंगे अब कोई अखबार न निकालो

वर्तमान दौर और परिस्थियां देखकर ऐसा महसूस होने लगा है कि मशहूर शायर अकबर इलाहबादी की कही बात “खींचों न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो” गलत हो जाएगी। परिस्थिति अब अखबारों से नहीं सम्हली जा रही यह कहना भी गलत न होगा की इन परिस्थितियों के जनक ही अखबार हैं। अब तो लड़ाई बंदुक से लड़ी जाएगी। इसकी शुरुआत हलांकि हो चुकी है, लेकिन भटके हुए लोगों ने यह काम शुरू किया है। एक तरफ जहां नकस्लियों ने बंदुक उठाकर कचरा हो चुकी व्यस्था के विरोध में है तो वहीं बंदुक उठाए सेना के जवान व्यवस्था को सुधारने के लिए मर रहे हैं। अगर नक्सली अपने असली मुद्दे पर लड़ाई शुरू किए तो यह जायज और देश के लिए सबसे अच्छी बात हो सकती है। बस शुरूआत अच्छी करने वाले नक्सलियों के बीच में नेता अच्छे हो जाएं। या यू कहूं की कोई क्रांतिकारी विचारधारा वाला व्यक्ति की बात ये नक्सली मान ले। बंदूक के दम पर ही सत्ता करें, लेकिन काम देश की भलाई के लिए करें। देश में 100 जवान हैं तो उसमें 90 जवान गांव के किसानों के हैं, उन्हें मारना छोड़ दें मारना ही हैं तो उन 10 लोगों को मारे जो कुर्सी के भूखे हैं। ज