गंगा किनारे गांव की यात्रा

       अयोध्या यात्रा समाप्ति के बाद गाड़ी रायबरेली की ओर मुड़ गई। अब यात्रा रायबरेली जिले के लालगंज तहसील तक जानी है। रास्ते में चलते हुए चर्चा सनातन संस्कृति को मानने और नदियों की महत्ता को समझने वाले पूर्वजों पर शुरू हुई। जब पूर्वज नदियों के किनारे निर्मल जल के लिए बसे होंगे। जब बसे होंगे तो उनकी सोच निश्चित ही नदियों से मिलने वाली सुविधाएं भी होंगी। बाद में खेती और यातायात से वे प्रभावित हुए होंगे। नदियों से मिली सारी सुविधाओं से संपन्न हुए इंसान को नदियों में उस समय निश्चित ही ईश्वर दिखाई दिया होगा तभी तो पुण्य लाभ के लिए वह हजारों वर्ष से नदियों को ईश्वर मानकर उनकी पूजा कर रहा है। जल मार्ग से यातायात तब से अब तक अनवरत जारी है, ऐसा नहीं है कि सभी नदियों के किनारे बसने वाले गांव और आबादियां संपन्न ही रही, उन्हें कोई तकलीफ नहीं हुई। बड़ी आबादी नदी के बाढ़ और कटाव से समय समय पर प्रभावित हुए। यही वाजह रही जो नदी किनारे बसे गांवों की आबादियां बाद के वर्षों में सड़क किनारे बसने लगी और अब हाईवे के किनारे आबाद हो रही हैं। रायबरेली से लालगंज के मार्ग आधुनिक रेल डिब्बा कारखाना है यहीं से नए सुविधाओं के साथ रेल डिब्बा तैयार किए जा रहे हैं। 

        हम दोपहर में लालगंज पहुंचे यहां से आगे का सफर गंगा नदी के किनारे बसे गांव निसगर के लिए होनी थी। जिस निसगर की यात्रा हमने रायबरेली से शुरू किए थे वहां से छत्तीसगढ़ समेत देश भर में अपनी पहचान बनाने वाले इस गांव के कई लोग हैं। यह गांव पहले  नरसिंहपुर के रूप में और बाद में ग्राम निसगर के रूप में पहचान बनाया है। गांव जाने के लिए लालगंज बाजार की पतली गली से होकर ईट से बनी सड़क पर हमारी गाड़ी आगे बढ़ गई। गांव के मार्ग पर चलते हुए नदियों के किनारे बसे गांव की समस्या पर नजर पड़ी। कैसे यहां पिछले दशकों में आए आकाल, सुखा और प्लेग ने पूर्वजों को न सिर्फ पवित्र गंगा का किनारा छोड़ने के लिए मजबूर किया, बल्कि गांव के गांव लोग पलायन कर दूसरे शहरों की ओर कुच कर गए और वहीं बस गए। गंगा नदी के किनारे बसे सैकड़ों गांव आज ऐसे हैं जिनके बासिंदे परदेशी होकर अपनी जमीन से कटकर दूसरे प्रदेश में परदेशिया का छाप लेकर जीवन यापन कर रहे हैं। वहां का मोह इतना है कि दूसरे प्रदेश में संपन्न होने के बाद भी वे अपने गांव अब वापस नहीं लौट पा रहे हैं। गांव में बने मकान जो अब जर्जर हालत में हैं आज भी उनका इंतजार कर रहे हैं जिनके बासिंदे कभी उन्हें व्यापार तो कभी रोजगार के लिए छोड़ गए थे। कुछ खंडहर डेहरी तो आज भी इसी उम्मीद में हैं कि उनको छोड़कर परदेश जाने वाले लौटकर आएंगे और उनका मरम्मत कराकर फिर से आबाद करेंगे।

       उत्तर प्रदेश का लालगंज तहसील किसी दूसरी तहसील से कमतर नहीं है। यहां भी तमाम सुख समृद्धि है। पुराने भवन यहां के इतिहास को चीख चीख कर बयां करती हैं। इसी तहसील में गांव तिवारीपुर और उसके बाद का गांव है निसगर, जिसे छोटी काशी के रूप में पहचान दिलाई यहां के विद्वान पांडेय ने, मिश्रा, तिवारी और शुक्ला परिवार यहां से घोड़े से कपड़े और दूसरा व्यापार करने निकले जो जहां ठहरे वहीं अपना ठिकाना बना लिए। व्यापार करते हुए कभी दक्षिण की ओर बढ़े बड़ी संख्या में निसगर के लोग छत्तीसगढ़ पहुंचे और यहां अपना व्यापार न सिर्फ बढ़ाया बल्कि यहां अपनी कर्मभूमि बनाकर बस गए। इस गांव से निकले लोगों की दूसरी और तीन पीढियां अब तो अपने गांव तक का नाम नहीं जानती। वहीं गांव के कुछ लोग हैं जो खंडहर हो चुके मकानों को भी देखरेख इस उम्मीद से कर रहे हैं कि इनके बासिंदे सुबह दाना चुगने गई चिड़िया की तरह ही शाम को अपने घोंसले में लौटेंगे और फिर से वापस गांव को आबाद करेंगे। 

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