सरकारें बना रही पत्रकारिता पर दबाव

सरकारी तंत्र का दुरूपयोग करके पत्रकारिता पर दबाव बनाना सरकारों का अब एक हथकंडा हो चुका है। मुख्य तीन स्तंभ को अपने कब्जे में लेने के बाद अब कथित चौथे स्तंभ को भी मोड़ने की कोशिश की जा रही है। लोकतंत्र के सभी चारो स्तंभ लगभग सरकार के शरणागत हो चुके हैं, जो नहीं हुए उन्हें किसी भी हद तक जाकर गुलाम बनाया जा ‌रहा है। हाल के दिनों में जिस तरह से हाईकोर्ट में जजों की राजनैतिक नियुक्तियां करवाई गयी है, जिस तरह से आईएएस, आईपीएस राजनैतिक विशेष पार्टियों के लिए काम कर रहे हैं, कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका पूरी तरह शरणागत हुए से दिखने लगे हैं। बीच बीच में दो‌ चार जजमेंट करके भले ही सुप्रीम कोर्ट और गिने चुने हाईकोर्ट के जज सुर्खियों में आ जाएं, वरन अब तो न्यायालय और न्यायपालिका से लोगों का भरोसा उठने सा लगा है। अपराधियों के लिए सहूलतें बढ़ती जा रही हैं, पीड़ित लगातार प्रताड़ित होते जा रहे हैं। लोक तंत्र से लोक गायब है, जन तंत्र से जन, न्यापालिका‌ से न्याय गायब है, व्यवस्थापिका से व्यवस्था, कार्यपालिका से कार्य गायब है, बची हुई थी मीडिया उससे अब समाचार गायब हो रहे हैं। अगर सरकार ने कह दिया तो फिर खबर चलना मुश्किल हो गया है। पहले ही ज्यादातर अखबार, न्यूज चैनल, वेबसाइट कारपोरेट कंपनियों का रूप धारण कर चुकी हैं, पत्रकारिता का काम कंपनियां कर रही हैं। उनके लिए तो बस अखबार निकालो, चैनल और वेबसाइट चलाओ जैसा हाल है। उनके यहां सरकार की सच्चाई मत बताओ आइना मत दिखाओ वाला सिद्धांत चल रहा है। क्योंकि धंधा में कोई भी कारपोरेट घराना अपना नुकसान नहीं करना चाहता और कर भी नहीं सकता, यही वजह है, लगातार अखबार, चैनल, वेबसाइटें बंद हो रहे और बंद होने के कगार पर हैं। उनका सर्कुलेशन, टीआरपी, व्यू कम होता जा रहा है, सरकार के पक्ष में लिखने वालों सरकारी मदद के साथ‌ सरकारी विज्ञापन मिल रहा है उसे पक्ष में लिखने वाले लेकर आगे बढ़ रहे है वहीं जो ‌सरकार की गलत नीतियों को उजागर कर रहे उनके ऊपर दबाव बनाने के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। छापे मारे जा रहे हैं। अनुमान है सरकार के तरफ से यह निर्देश जल्द ही आने वाले हैं गलत और अत्याचार का विरोध मत करो। विरोध करोगे,  सच्चाई सामने लाओगे, लोगों को बताओगे तो आपके यहां भी छापा पड़ेगा। 

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